फ़िल्म :- मालिक
कलाकार :- राजकुमार राव, मानुषी छिल्लर
निर्देशक :- पुलकित
रेटिंग :- 2/5
शॉर्ट में मालिक की कहानी :-
मालिक एक गैंगस्टर की कहानी है। साल है 1988 है । दीपक उर्फ मालिक (राजकुमार राव) इलाहाबाद का एक दबंग गैंगस्टर है, जिसे स्थानीय राजनीतिक नेता शंकर सिंह उर्फ डड्डा (सौरभ शुक्ला) का सपोर्ट मिला हुआ है । डड्डा विधायक बल्लर सिंह (स्वानंद किरकिरे) का भी मार्गदर्शन करता है, लेकिन अब वह मालिक की बढ़ती ताकत से परेशान हो चुका है। हालात तब बिगड़ते हैं जब मालिक एक चेकपोस्ट पर उसके ट्रकों को रोकने वाले पुलिसकर्मी की हत्या कर देता है। मजबूर होकर विधायक इलाहाबाद में एक नया एसपी प्रभु दास (प्रोसेनजीत चटर्जी) को नियुक्त करता है। प्रभु दास के नाम 98 एनकाउंटर दर्ज हैं और इसी वजह से वे पहले निलंबित भी हो चुके हैं। इलाहाबाद पहुंचकर प्रभु दास फैसला करते हैं कि अब मालिक का खात्मा ज़रूरी है — खासतौर पर तब, जब मालिक उनके पोते को धमकी देता है। इसके बाद क्या होता है — यही फिल्म की बाकी कहानी है।
मालिक की कहानी का रिव्यू :-
ज्योत्सना नाथ और पुलकित की लिखी मालिक की कहानी काफी हद तक क्लिशे (दोहराई हुई) लगती है। दो लेखकों की पटकथा कुछ हिस्सों में ठीक है, लेकिन समग्र रूप से यह ज्यादा नया या ताज़ा कुछ पेश नहीं करती । हालांकि, उनके डायलॉग्स काफी शार्प और प्रभावशाली हैं। पुलकित का निर्देशन औसत लेकिन प्रभावी है। उन्होंने फिल्म को एक बड़े दर्शक वर्ग को ध्यान में रखते हुए मासी ट्रीटमेंट दिया है — यानी कहानी में एक्शन और कमर्शियल मसालों की भरपूर झलक मिलती है। खास बात ये है कि उन्होंने अपने प्रमुख कलाकारों से शानदार परफॉर्मेंस निकलवाई है। इंटरवल पॉइंट काफी दमदार और चौंकाने वाला है। वहीं सेकेंड हाफ में शलिनी (मानुषी छिल्लर) का ट्रैक शुरुआत में थोड़ा जबरन जोड़ा गया महसूस होता है, लेकिन बाद में वही फिल्म का सबसे दमदार हिस्सा बन जाता है।
वहीं कमियों की बात करें तो, फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि यह एक ऐसी कहानी कहती है, जो दर्शक पहले भी कई बार देख चुके हैं — फिर वो वास्तव हो या शूटआउट सीरीज़। ओटीटी की दुनिया भी अब ऐसे गैंगस्टर ड्रामों से भरी पड़ी है। मालिक देखने पर कहीं न कहीं खाकी: द बिहार चैप्टर की याद ताज़ा हो जाती है।
फर्स्ट हाफ छोटा है, लेकिन सेकेंड हाफ करीब 90 मिनट लंबा है और कुछ दृश्यों में दर्शकों की सहनशीलता की परीक्षा लेता है। खासकर, फिल्म का अंत जिस 'पागलपन' वाले सीन पर होना चाहिए था — वह बिंदु छोड़कर आगे बढ़ते हुए ‘कोलकाता’ वाला ट्रैक जोड़ना फिल्म को कमजोर बनाता है। यह हिस्सा न सिर्फ अनावश्यक है बल्कि थोड़ा हास्यास्पद भी लगता है।
एक्टिंग :-
राजकुमार राव एक बार फिर साबित करते हैं कि वे हर किरदार में अपना शत-प्रतिशत देते हैं और मालिक इसका अपवाद नहीं है। एक खतरनाक गैंगस्टर के रूप में वे पूरी तरह विश्वसनीय नजर आते हैं। खासकर वह दृश्य, जहां वह एक साथ चार लोगों को फांसी देता है — बेहद प्रभावशाली है और यह फिर साबित करता है कि वे मौजूदा समय के सर्वश्रेष्ठ अभिनेताओं में से एक हैं। मानुषी छिल्लर की शुरुआत में भूमिका सीमित लगती है, लेकिन बाद में वे एक बड़ी सरप्राइज़ के रूप में उभरती हैं। एक गांव की सीधी-सादी लड़की की भूमिका को उन्होंने बखूबी निभाया है। अंशुमान पुष्कर (बदायूं) की भूमिका अहम है और उन्होंने जबरदस्त छाप छोड़ी है। 12वीं फेल [2023] के बाद यह उनका एक और सराहनीय प्रदर्शन है। प्रोसेनजीत चटर्जी ने ठीक-ठाक काम किया है, लेकिन लगता है कि उन्हें स्क्रीन पर और अधिक स्पेस मिलना चाहिए था। सौरभ शुक्ला, स्वानंद किरकिरे और सौरभ सचदेवा (चंद्रशेखर) भरोसेमंद कलाकार हैं और उन्होंने फिल्म को मजबूती दी है। राजेंद्र गुप्ता (बिंदेश्वर; मालिक के पिता) और बलजिंदर कौर (पार्वती; मालिक की मां) का अभिनय प्रभावशाली है, लेकिन फिल्म के एक बिंदु के बाद उन्हें लगभग भुला दिया जाता है। योगी राज (लंगड़ा) भी अपने सीमित दृश्य में प्रभाव छोड़ते हैं। चेकपोस्ट वाले सिपाही की भूमिका निभाने वाला अभिनेता भी ठीक-ठाक है। हुमा कुरैशी अपने डांस नंबर में बेहद ग्लैमरस नजर आती हैं।
मालिक का संगीत और अन्य तकनीकी पहलू:
फिल्म के गाने खास असर नहीं छोड़ते। 'नामुमकिन' को केवल इसकी खूबसूरत पिक्चराइज़ेशन के कारण थोड़ी सराहना मिलती है। 'दिल थाम के' पूरी तरह से भुला देने लायक है, जबकि 'राज करेगा मालिक' फिल्म के मूड और सेटिंग से मेल नहीं खाता। केतन सोढ़ा का बैकग्राउंड म्यूज़िक सिनेमैटिक फील देता है और कई दृश्यों को उभारने में मदद करता है। अनुज राकेश धवन की सिनेमैटोग्राफी संतोषजनक है। निहारिका भासिन की कॉस्ट्यूम डिज़ाइनिंग बेहद साधारण और किरदारों के अनुरूप है। रीता घोष का प्रोडक्शन डिजाइन विश्वसनीय और यथार्थपूर्ण नजर आता है। विक्रम दहिया का एक्शन निर्देशन खून-खराबे से भरपूर है, जो फिल्म के टोन को ध्यान में रखते हुए उपयुक्त है। हालांकि, जुबिन शेख की एडिटिंग और ज्यादा चुस्त हो सकती थी—खासतौर पर लंबा चलता दूसरा हाफ कसा हुआ महसूस नहीं होता।
क्यों देंखे मालिक ?
कुल मिलाकर, मालिक राजकुमार राव को एक ऐसे अवतार में पेश करती है जो पहले कभी नहीं देखा गया, लेकिन इस जबरदस्त ट्रांसफॉर्मेशन के पीछे एक सामान्य और कई बार देखी हुई गैंगस्टर कहानी छुपी है, जो जानी-पहचानी जमीन पर ही चलती है । बॉक्स ऑफिस पर कड़ी प्रतिस्पर्धा के चलते, इसकी संभावनाएँ सीमित लगती हैं, हालाँकि इसे बी और सी सेंटर्स के सिंगल स्क्रीन्स में कुछ दर्शक मिल सकते हैं।